कांच की दीवार में कैद थी वो उसके साथ,
जिसे देख तो सकता था, पर कहने का हक़ नहीं था मेरा ।
कहता था उससे तोड़ दे इन दीवारों को,
शक होता है मुझे उसकी मचलती बातो से ।
चुरा न ले जाये वो तुम्हे इस कदर,
देखता रह जाऊ तुम्हे हर पहर ।
कहती थी मुझसे वो, क्या इतना ही विस्वास था,
चंद लहरों से ही डगमगा जाए, क्या ऐसा ही प्यार था ।
डर लगता है मुझे, कंही खो न दू तुम्हे,
ये प्यार कोई कश्ती नहीं जो डगमगा जाए चंद लहरों से ।
ये प्यार एक दरिया है, जिसमे डूब कर मुझे मरना है,
कैसे दिलाऊं यकीन, है विस्वास तुझ पर कितना है।
कहती थी मुझसे, गर होता विस्वास न डरते तुम,
ये कांच की दीवार है, यूँ न करते इल्म तुम ।
निगाहो से बातो तक, बातो से दिल तक, दिल से रूह तक, और रूह से जिस्म तक उतरी हूँ मैं ।
मेरा जिस्म बिकाऊ नहीं इतना, की छोड़ दू तुम्हारा साथ ।
सुनकर उसकी बातो को, समझ न पाया मैं कुछ ।
तू सही या मैं गलत, जीना है अब तेरे संग ।
फिर थाम कर किसी और का हाथ, सपने सजाये उसने, उसके साथ ।
छोड़ गई वो इस कदर, न उम्मीद थी मुझे किसी पहर ।
वो बस मेरी थी, सायद यही मेरा वहम था ।
~ दीपांशु राठौर
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