Monday, April 06, 2020

मेरा वहम

कांच की दीवार में कैद थी वो उसके साथ,
जिसे देख तो सकता था, पर कहने का हक़ नहीं था मेरा । 

कहता था उससे तोड़ दे इन दीवारों को
शक होता है मुझे उसकी मचलती बातो से
चुरा ले जाये वो तुम्हे इस कदर
देखता रह जाऊ तुम्हे हर पहर

कहती थी मुझसे वो, क्या इतना ही विस्वास था,
चंद लहरों से ही डगमगा जाए, क्या ऐसा ही प्यार था

डर लगता है मुझे, कंही खो दू तुम्हे,
ये प्यार कोई कश्ती नहीं जो डगमगा जाए चंद लहरों से
ये प्यार एक दरिया है, जिसमे डूब कर मुझे मरना है,
कैसे दिलाऊं यकीन, है विस्वास तुझ पर कितना है।

कहती थी मुझसे, गर होता विस्वास डरते तुम,
ये कांच की दीवार है, यूँ करते इल्म तुम

निगाहो से बातो तक, बातो से दिल तक, दिल से रूह तक, और रूह से जिस्म तक उतरी हूँ मैं
मेरा जिस्म बिकाऊ नहीं इतना, की छोड़ दू तुम्हारा साथ

सुनकर उसकी बातो को, समझ पाया मैं कुछ
तू सही या मैं गलत, जीना है अब तेरे संग


फिर थाम कर किसी और का हाथसपने सजाये उसने, उसके साथ  
छोड़ गई वो इस कदर, उम्मीद थी मुझे किसी पहर

वो बस मेरी थी, सायद यही मेरा वहम था

                                                                     ~ दीपांशु राठौर     

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